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बुधवार

बचा टूटने से तो पत्थर बनेगा 
ये मज़लूम कल का सितमगर बनेगा 

सलीबों को सजदा करेगी अक़ीदत 
वहम ग़मज़दों का पयम्बर बनेगा 

नमी सब्र की , चंद क़तरे वफ़ा के 
इसी रेत में इक समन्दर बनेगा 

न पायेगी ख़्वाहिश कभी बादशाहत 
बना तो इरादा सिकन्दर बनेगा  
 

शनिवार


       
        
        तुम्हें है जीना तो सांस तुम को ही लेनी होगी 
                  तुम्हारी उलझन का हल कोई दूसरा नहीं है 

        तुम्हारी कोशिश ही कामयाबी का आईना है 
                  महान कर दे वो पल कोई दूसरा नहीं है 

शुक्रवार

देख लेने की ताक़त है किस में , सोंच पाने की फ़ुरसत  किसे है 
कोई झूठा नहीं सब हैं सच्चे आज़माने  की फ़ुरसत  किसे है 

ग़म की मसरुफ़ियत के हवाले वक़्त को बुज़दिली ने किया है 
सब को रोने की आदत लगी है मुस्कुराने की फ़ुरसत  किसे है

आसमानों को छूने लगीं हैं मन्दिरों - मस्जिदों की मीनारें 
हमने क्यों उस को दिल से निकाला ये बताने की फ़ुरसत  किसे है 

सब को जल्दी है सब अपनी- अपनी रोटियां सेंकना चाहते हैं 
आग जो फैलती जा रही है वो बुझाने की फ़ुरसत  किसे है 




सोमवार

                       ब्रह्मा 


जिस ने दी है तुम्हें सुन्दरता 
उसी ने बनाया है मुझे 
 कुरूप 
जिसे पूजते हो तुम दिन - रात 
उसी का प्रतिरूप हूँ  मैं  
अगली बार मुझको बदसूरत कहने से  पहले सोंचना 
कहीं तुम इश्वर का मज़ाक तो नहीं उड़ा  रहे 

मंगलवार

देखने करने वाले चैन से हैं 
                  
          ज़ुल्म सहता रहा अकेला मैं 
         
वो भी वादे को अपने भूल गया 
                  
          सब्र करता रहा अकेला मैं 

सोमवार

GHAZAL

ताक़त से तु पंगा लेगा पिट जाएगा 

कोई तेरा साथ न देगा पिट जाएगा 

              अपनी राह चला तो पाएगा मंज़िल 

              दुनिया के पीछे दौड़ेगा पिट जाएगा 

शीरीं लहजा सुख़नवरी की पहली शर्त 

कड़वी  बात जहाँ बोलेगा पिट जाएगा 

             तेरे इस हमसफ़र के लाखों दुश्मन हैं 

             सच्चाई के साथ चलेगा पिट जाएगा 

शुक्रवार

              देर से लाए  हैं ईमान 

करे बात सख़्ती से जब भी कोई 
किसी नर्म लहजे की याद आती है 

         कोई साफ़ लफ़्ज़ों में ना कह दे तो 
         वो शरमाई ख़ामोशी याद आती है

ग़मों  पे कोई खुल के हँसता है जब 
उन आँखों की बेताबी याद आती है 

         मोहब्बत की रातें , मोहब्बत के दिन 
         हर इक शय से बेज़ारी  याद आती है 

वो रस्मों - रिवाजों की शैतानियत 
नहीं झुक सकी फिर भी याद आती है 

         इबादत न कर पाए हम दोनों ही 
         मोहब्बत ख़ुदा जैसी याद आती है