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शुक्रवार

              देर से लाए  हैं ईमान 

करे बात सख़्ती से जब भी कोई 
किसी नर्म लहजे की याद आती है 

         कोई साफ़ लफ़्ज़ों में ना कह दे तो 
         वो शरमाई ख़ामोशी याद आती है

ग़मों  पे कोई खुल के हँसता है जब 
उन आँखों की बेताबी याद आती है 

         मोहब्बत की रातें , मोहब्बत के दिन 
         हर इक शय से बेज़ारी  याद आती है 

वो रस्मों - रिवाजों की शैतानियत 
नहीं झुक सकी फिर भी याद आती है 

         इबादत न कर पाए हम दोनों ही 
         मोहब्बत ख़ुदा जैसी याद आती है